यह घटना विचलित करने वाली है कि स्कूल में हुए विवाद का बदला लेने के लिये छात्रों का एक गुट किसी छात्र के घर पर देर रात गोलियों से हमला बोल परिवार के एक सदस्य की हत्या करके अन्यों को घायल कर दे। पंजाब के बटाला स्थित कस्बे हरचोवल में छात्रों की रंजिश का खमियाजा एक परिवार को भुगतना पड़ा। घटना हमारे समाज में युवा पीढ़ी के भटकाव व हिंसक होने की वजह तलाशने की जरूरत बताती है। कहीं न कहीं समाज में उन संस्थाओं का क्षरण हुआ है, जो नई पीढ़ी के चरित्र निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती थीं। निसंदेह हालिया वर्षों में शिक्षक-छात्र संबंधों में वह रिश्ता तिरोहित होता नजर आया है जो छात्रों के सर्वागीण विकास में सहायक होता रहा है। उस गुरु-शिष्य परंपरा का भी ह्रास हुआ जो कभी भारतीय शिक्षा प्रणाली की आत्मा हुआ करती थी। यह रिश्ता अब वेतन, फीस व ट्यूशन की प्रवृत्तियों में सिमट कर रह गया है। कहीं न कहीं शिक्षक की भी वह भूमिका अब नजर नहीं आती, जिसमें शिक्षक छात्र के भटकाव पर नियंत्रण लगाने में निर्णायक भूमिका निभाते थे। एक तो छात्रों के अधिकारों की वकालत करने वाले कानून किसी ऐसे उपाय को खारिज करते हैं, जिसमें भटके छात्रों को दंडित करने का प्रावधान हो। दूसरे इंटरनेट व सोशल मीडिया के प्रसार ने एक आक्रामक पीढ़ी को जन्म दिया है। दरअसल, पश्चिमी देशों द्वारा पोषित वेबसाइटों और विभिन्न ऑनलाइन गेम्स में रक्तरंजित हिंसक कार्यक्रमों की भरमार है। रात-दिन ऐसे खेलों को खेलने वाले छात्रों की स्वस्थ मानसिकता के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन खेलों का नायक घातक हथियारों से अपने दुश्मनों को क्रूरता से मारता नजर आता है। जाहिर है बच्चों के कोमल मतिष्क पर इनका घातक प्रभाव होना लाजिमी है। कुछ वर्ष पूर्व यमुनानगर की एक स्कूल प्रधानाध्यापिका की एक सस्पेंड छात्र ने पेरेंट्स मीटिंग के दिन पिता की रिवॉल्वर से गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस छात्र को हाल ही में उम्रकैद की सजा हुई है। ऐसे में सवाल बच्चे की परवरिश की खामियों का तो है ही, साथ ही अभिभावकों पर भी सवाल है कि कैसे ऐसा घातक हथियार बच्चे के लिये सहज उपलब्ध था। दरअसल, बदलते वक्त के साथ बच्चों में अहं इतना सशक्त हुआ है कि वे अपनी नाक पर मक्खी । बैठना भी बर्दाश्त नहीं करते। जहां कहीं उनके अहम को ठेस लगती है. वे रिश्ते. नाते, मानवता और लिहाज को ताक पर रखकर बदला लेने को आतुर हो जाते हैं। कहीं न कहीं अब हमारे समाज की सीधी दखल, बच्चों के जीवन में मार्गदर्शक भूमिका निभाने की नहीं रह गई है। मां-बाप के पास इतना समय नहीं है कि वे हर समय बच्चों को अपनी निगाह में रख सकें। दूसरे मोबाइल फोन के जरिये बच्चों तक इतनी चाही-अनचाही सामग्री पहुंच रही है कि अभिभावक भी उस पर नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं। इस प्रवृत्ति को सोशल मीडिया ने और हवा दी है। ऐसी कोई व्यवस्था नजर नहीं आती जो वयस्कों की सामग्री को बच्चों तक पहुंचने से रोक सके। वहीं बॉलीवुड व हॉलीवुड की फिल्मों तक बच्चों की सहज पहुंच ने भी बच्चों को हिंसक बनाने में भूमिका निभायी है। बदलते वक्त के साथ बच्चों की सोच व जीवनशैली भी आक्रामक हुई है। इसे पीढ़ियों का अंतर कहें या हमारे खान-पान और जीवनशैली का कुप्रभाव, युवा मन संक्रमण काल से गुजर रहा है। अब तक स्कूलों के विवादों पर गोलीबारी की घटनाएं हम अमेरिका व यूरोप जैसे विकसित देशों में सुनते थे, अब ये खबरें हमारे घर तक जा पहुंची हैं। अभिभावकों, शिक्षकों व समाज विज्ञानियों को इस दिशा में गंभीरता से विचार करते हुए कारणों की पड़ताल करनी चाहिए। अन्यथा धीरे-धीरे यह समस्या जटिल होती जायेगी।
हिंसा की पाठशाला!