आधुनिकता की खोखली नींव पर कोरोना की चोट


 


 


मै कोई डॉक्टर नहीं हूं लेकिन विश्वभर में हुए कोरोना वायरस के फैलाव के असर ने सोच में अलग आयाम पैदा किया है, समूची मानवता को दरपेश इस नई चुनौती के मद्देनजर मैं मेडिकल चिकित्सकों, स्वास्थ्य कर्मियों और सरकारी अधिकारियों द्वारा दी जा रही जानकारी के बनिस्बत सामाजिक एवं आध्यात्मिक पहलू पर मुखातिब होना चाहूंगा। हालांकि, मुझे मालूम है कि मेरी इस 'दार्शनिकता' की सीमाएं हैं क्योंकि कोरोना वायरस वास्तव में जानलेवा सिद्ध हो सकता है। चेतावनी के मुताबिक सबको हैंड सेनिटाइज़र और मास्क इस्तेमाल करने चाहिए, बारंबार हाथ धोए जाएं, फालूत की यात्राएं और एक जगह लोगों के इकट्ठा होने से बचा जाए, अपने शारीरिक लक्षणों का काफी ध्यान रखें और जरूरत पड़ने पर डॉक्टर से सलाह लें। लेकिन दूसरी ओर जब मैं इस महामारी का भय चीन से लेकर इटली और भारत से लेकर अमेरिका तक फैलते हुए देख रहा हूं तो पाता हूं किस कदर आधुनिकता का ढांचा चरमरा गया है। क्या यह समय जीवनमृत्यु के विषय के अलावा आधुनिक व्यवस्था और अनिश्चितता को लेकर मनन करने और नए सवाल करने का नहीं है? सामाजिक इतिहासकार मौजूदा तानेबाने को राजनीतिक सिद्धांतवाद और दार्शनिकता से जडाऊ एक ऐसा महान शाहकार बताते हैं, जिसके चरित्र-चित्रण में वैज्ञानिकता, नवीनतम तकनीक के लिए आसक्ति और असीमित प्रगति मुख्य अवयव हैं। जैसे-जैसे ज्ञान शक्ति में तबदील होता गया, मसलन, बैकोन-सिद्धांत कहता है: प्रकृति को तोड़मरोड़ कर इनसान इस पर विजय पाने का यत्न कर रहा है ताकि दुनिया पर मानव की श्रेष्ठता स्थापित की जा सके, लेकिन इसकी एवज में मानवीयता हमसे दूर छिटकती गई। हम तकनीकविज्ञान की चकाचौंध गाथाओं में बहकर विश्वास करने लगे कि इनसान सचमुच में दुनिया का नीति-नियंता बन गया है। आधुनिकता ने मृत्यु को लेकर हमें भयावह रूप से असहज बना दिया है। यह सोच रखना कि मनुष्य ज्यादा-से-ज्यादा समय तक जिंदा रहना चाहिए, इसके लिए मौत से लड़ा जाए, यहां तक कि भले ही इनसानी शरीर पूरी तरह मेडिकल प्रक्रिया के आलंबनों पर टिका हो, लेकिन उसे अधिक से अधिक से समय तक जीवित रखा जाए। बेशक बुजुर्ग भी जवानों सरीखे दिखाई दें, नियमित स्वास्थ्य जांच करवाते रहें लेकिन मृत्यु के बारे में विचार न करें। आधुनिकवादियों के लिए मृत्यु भी एक तरह का शारीरिक क्षरण करने वाली व्याधि की तरह है, जिस पर विजय पाई जानी चाहिए। यहां मृत्यु को जीवन के अस्तित्व में एक अवश्यंभावी कदमताल की तरह और ज्यादा नहीं लिया जा रहा है। कहा जा रहा है जब हम प्लेग और चेचक जैसी अलामतों से छुटकारा पा सकते हैं, तो फिर एड्स और कैंसर जैसी विकट बीमारियों से भी पार पा सकते हैं। नई दवाओं और रोकथाम के दम पर हम अंततः मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे और अमर बन सकते हैं!! यह आधुनिकता के दंभ की पराकाष्ठा है। इसके बाद जिस चीज से आधुनिकता अभिभूत है तो वह है क्रमबद्धता, भविष्यवाणी और निश्चितता। हम अपने भविष्य को योजनाबद्ध बनाना पसंद करते हैं, इस विश्वास के साथ कि हम ही समय के असली वाहक हैं और अपने तर्कों और तकनीक-विज्ञान के दम पर भविष्य को आकार देने में सक्षम हैं। लेकिन ठीक इसी वक्त हम अनिश्चितता के प्रति असहज हैं, अस्पष्टता कहां रह रही है, हम उसकी खोज करते हैं, हमें जीवन के लिए एक गणितीय सटीकता वाला क्रम तो पसंद है लेकिन काव्यात्मक रूहानी इनसान बनने की चाहना नहीं है। हम अपना भविष्य अपनी मुट्ठी में चाहते हैं। पैसा सही जगह कहां लगाया जाए, इसके लिए निवेश विशेषज्ञों से सलाह लेंगे, अपने बच्चों का भविष्य सही और कैसे सुनिश्चित किया जाए, इसको लेकर परिकल्पना करते हैं, स्वास्थ्य के लिए मेडिकल बीमा करवाते हैं, अपनी छुट्टियां कैसे बितानी हैं, इसकी अग्रिम योजना बनाते हैं। जब कोरोना महामारी के संदर्भ में खुद को देखते हैं तो महसूस करते हैं कि हमारी आधुनिकता की नींव कितनी खोखली है। एक तरह से यह महामारी हमें कुछ गहरा और सार्थक संदेश देना चाह रही है। पहला कि हमें विनम्र होने की जरूरत है, हम दुनिया के विधाता नहीं हैं। भले ही हम चांद तक पहुंच चुके हैं और आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की खोज भी कर ली है, तथापि हमारी हैसियत इस विराट ब्रह्मांड में एक कण से ज्यादा नहीं है। बेशक अस्पतालों के गहन चिकित्सा कक्षों में वेंटिलेटर के सहारे हम मौत को कुछ आगे सरका पाएं लेकिन अंततः यह होकर रहेगी। मृत्यु हमें हमेशा चौंकाती रही है, यह हमारे इस दंभ को तगड़ा झटका देने की सदा हैसियत रखती है कि सब कुछ हमारे नियंत्रण में है। लगता है प्रकृति (अस्तित्व) कोरोना वायरस के जरिए यह संदेश देना चाहती है-इनसान इतना भी ताकतवर नहीं है, जितना खुद को समझता है, इसी प्रकृति ने खुद को महाशक्ति समझने वाले चीन और अमेरिका के आत्मविश्वास अपने जरा से झटके से हिलाकर रख दिया है। हम महसूस करें कि हम हर चीज के बारे में न तो पहले से भविष्यवाणी कर सकते हैं, न ही स्थिति को नियंत्रित कर सकते हैं। वास्तव में हम भेद्य हैं और कभी भी 'मुसीबतजदा' होने वाला समाज हैं, यहां तक कि अमीर भी नहीं बच सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो अनिश्चितता इनसान के अस्तित्व का रहस्यमयी हिस्सा है। मौजूदा संकट ने अवसर दिया है कि जिंदगी को भरपूर तरीके से जीने और अर्थपूर्ण ढंग से मरने की कला को फिर से परिभाषित किया जाए। इस संदर्भ में मैं तीन बिंदुओं पर ध्यान चाहूंगा। पहला, सजग सावधानी और आसन्न डर की मानसिकता के बीच के बारीक फर्क को जानना होगा। यह ठीक वैसा है कि हमें सावधान रहने की जरूरत है और जरूरी देखभाल एवं मेडिकल निर्देशों का पालन करना होगा। साथ ही यह याद रहे कि डर की मानसिकता 'भयोत्पादक-उद्योग' द्वारा पैदा और फैलाई जाती है। वास्तव में आधुनिकता कभी भी भय को नहीं जीत पाई है, बल्कि इसमें वृद्धि ही की है। जितना हम खुद को अमर बनाना चाहेंगे, उतना ही मौत का डर सताएगा और अस्तित्व की अनिश्चितता इसमें सदा खुद-ब-खुद निहित होती है। आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह समझदारी भरी सावधानी न होकर बाजारजनित ऐसा सामाजिक डर है, जिसके तहत महामारी बताकर मास्क और सेनिटाइज़र और अन्य संबंधित उद्योग चांदी काट रहे हैं। दूजा बिंदु, हमें यह अहसास करने की जरूरत है कि कोरोना वायरस के अतिरेक भरे डर से हम एक अर्थपूर्ण और सुकून भरी जिंदगी नहीं जी पाएंगे। एक सार्थक और परिपूर्ण जिंदगी जीने के लिए मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं बल्कि इसके वजूद को स्वीकार करना ज्यादा बढ़िया है। मेरी यह सोच आत्मघाती नहीं है वरन जीने की असल भावना है। तीजा बिंदु, हमें ऐसी जीवनशैली बनाने जरूरत है जो स्नेह और पर्यावरणीय संवेदनशीलता की भावना से शुद्ध हो, न कि सेनिटाइजर या मास्क इत्यादि से। कोरोना-19 वायरस बेशक जानलेवा है लेकिन कुपोषण, वायु प्रदूषण और जलवायु बदलावों का क्या? इन तमाम 'कातिलों' का प्रतिरोध करने वालों को ऐसी दुनिया बनानी होगी जहां संसाधनों पर अमीरों का एकछत्र राज न बन पाए।